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भारत की लोक कथाएँ

ए.के.रामानुजन

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :386
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4437
आईएसबीएन :81-237-3446-8

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बाईस भारतीय भाषाओं की चुनी हुई लोक कथाएँ...

Bharat Ki Lok Kathayein a hindi book by A.K.Ramanujan - भारत की लोक कथाएँ - ए.के.रामानुजन

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारत की लोक कथाएं पुस्तक बाईस भारतीय भाषाओं की चुनिंदा लोककथाओं का संकलन है। भारत के अधिकांश अंचलों का प्रतिनिधित्व करता हुआ यह संकलन इस उप महाद्वीप की लोककथाओं के बहुप्रचलित रूपभेदों की बानगी प्रस्तुत करता है। इन कहानियों का चयन करते समय संकलन ने पूरे भारत वर्ष की मौखिक परम्परा को सांकेतिक रूप में प्रस्तुत करने का भरपूर प्रयास किया है। ये लोककथाएं भाषा और प्रस्तुति शैली की दृष्टि से तथा पाठकों की दिलचस्पी की दृष्टि से, उत्तम कोटि की हैं। एक ही बैठक में समाप्त करने को विवश करने वाली यह पुस्तक भारतीय लोककथा कोश के लिए एक अप्रतिम उपहार है।

 

प्रस्तावना

इस किताब में बाईस भारतीय भाषाओं कि चुनिंदा और अनूदित लोक-कथाओं को संकलित किया गया है। यह संकलन भारत के अधिकांश अंचलों की नुमाइंदगी करता है। संकलन सही मायने में भारतीय लोक-कथाओं की विविधता और परिवर्तनशील रूपभेदों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। यह संग्रह इस उपमहाद्वीप की लोक-कथाओं के बहुप्रचलित रूपभेदों की बानगी प्रस्तुत करता है।

हालांकि संग्रह की हर कथा किसी भाषा और अंचल के एक बातपोश (कथावाचक) से ली गई है, लेकिन एकाध अपवाद को छोड़कर हर कहानी दूसरे अंचलों में भी थोड़े-बहुत रूपभेद को सिर्फ इसलिए यहां दिया गया है, ताकि आप या कोई और इसे पढ़े, इसमें प्राण फूंके और इसे किसी को सुनाकर इसे नया रूप दे। मेरे हाथ में आने के बाद मैंने इन कहानियों को चुना व्यवस्थित और रूपांतरित किया।
इस प्रक्रिया में निश्चय ही मैंने इन्हें कुछ मांजा है। सो आप मुझे नवीनतम बातपोश मानें और खुद को नवीनतम श्रोता, जो अपनी बारी आने पर कहानी को फिर सुनाएगा। कहावत की तरह कहानी का अर्थ भी संदर्भ में मुखर होता है। इस किताब के संदर्भ में यह अर्थ आपके और मेरे बीच अब उदघाटित हुआ है।

काव्य की तरह लोक-कथा भी अपनी बुनावट में सांस्कृतिक तत्त्वों को समेटे हुए होती है। लोक-कथा गतिशील रूपक है, जो हर बार सुनाए जाने पर अपना अर्थ बदल लेता है। मैंने इन कहानियों को इस तरह मालाओं में क्रमबद्ध किया है, जैसा कि मैं कविताओं की किताब को करता, ताकि उनका एक-दूसरे से संवाद हो, और तरह बिंदु-दर-बिंदु प्रश्न-प्रति प्रश्न एक संसार का सृजन होता चले।
किसी कहानी के मूल-रूप की पुनर्रचना असंभव है। इन तमाम कहानियों को अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग समय पर अनुवाद किया और मैंने इन्हें अपने ढंग से वापस लिखा है- कुछ में मैंने किंचित से थोड़ा अधिक परिवर्तन वहीं किया है जहां मुझे भाषा निरस, बोझिल या कहें एकदम पुरानी लगी। मैंने बातपोश के मूलभाव से छेड़छाड़ नहीं है, न ही उसके वर्णन या अभिप्राय (मोटिव) को छेड़ा है।

साथ ही कथानक के स्वरूप को मैंने जस का तस रखने की चेष्टा की है। कथा को अधिक नाटकीय या कलात्मक बनाने के लिए मैंने उसके अलग-अलग पाठांतरों के प्रसंगों को मिलाया नहीं है।
मैंने यह ध्यान रखा है कि लोक-कथाओं के साहित्यिक पाठों के बजाय बातपोशों की असली कहानियों को ही किताब में स्थान दिया जाय।
इस संग्रह की तकरीबन चौथाई कहानियां मैंने खुद कीं या करवाईं-इनमें से कुछ तो पहली बार प्रकाशित हो रही हैं। अंग्रेजी अनुवाद में तो निश्चित ही। शेष में से कई उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के स्त्रोतों से ली गई हैं। उस दौरान लोक-कथाओं के कुछ बेहतरीन संकलन तैयार किए गए और ‘द इंडियन एंटिक्वरि’ ‘द जर्नल ऑफ द रॉयल एशिऐटिक सोसायटी ऑफ बंगाल और नार्थ इंडियन नोट्स एंड क्विरिज’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।

अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारियों, उनकी पत्नियों और बेटियों और विदेशी मिशनरियों के साथ-साथ कई भीरतीय विद्वानों ने भी इसमें अपना योगदान दिया। इस अवधि में दो हजार से अधिक लोक-कथाएं संग्रहित, अनूदित और प्रकाशित हुईं। ये पुरानी हैं, पर आज भी सुनाई जाती हैं।

इस पुस्तक की भूमिका में भारत के बारे में किसी भी तरह के अध्ययन में मौखिक परंपरा के महत्त्व पर विचार किया गया है। इन कहानियों को पढ़ते हुए यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे कहानियाँ दिल बदलाव के लिए बनी हैं। इनकी खूबसूरती का आनंद लिया जाना चाहिए। बकौल एक चीनी कहावत के, ‘चिड़ियां इसलिए नहीं गातीं कि उसके पास जवाब हैं। वे गाती हैं, क्योंकि उनके पास गीत हैं।’ हालांकि हर गीत का अपना, अंचल जाति, संदर्भ और प्रभाव होता है।
इस किताब के तैयार होने में मैं अनगिनत बातपोशों का ऋणी हूं।

इनमें सबसे अव्वल मेरी अपनी दादी मां है। साथ ही पूरे विश्व के संग्रहकर्ताओं, विद्वानों संपादकों और अनुक्रमणिकाएं बनाने वालों का भी ऋणी हूँ जो एक शताब्दी से भी अधिक की अवधि में सक्रिय रहे। वेंडी वूल्फ ने पांच साल पहले सुज़ान बेर्गोल्झ के जरिए इस प्रोजेक्ट के लिए पहल की। बराबर स्टोलर मिलन और वेंडी डोनीगर की लोक-कथाओं में दिलचस्पी मेरे लिए प्रेरणाप्रद रही है।

योजी यामागुची के सौजन्य, संपादकीय कौशल और शिष्ट तकाजों ने इस किताब को पूरा करने और साकार देने में मुझे मदद की। बहुत समय पहले जब मैंने लोक-कथाएं सुनीं और उनका संग्रह किया, तब मैंने उन्हें किताब का रूप देने के बारे में सोचा भी नहीं था। सन 1956 में दक्षित भारत के एक कस्बे में एडविन कर्कलेंड से मिलने पर मैंने एक कार्यक्षेत्र के रूप में लोक-साहित्य को पहचाना।

कैरोलिन और एलन डयंडस-जिनसे मेरा परिचय अमरीका पहुँचने के पहले महीने में ही हो गया था-ये आधी सदी की दोस्ती मेरे लिए सतत सुखद और शिक्षाप्रद रही है। शिकागो विश्वविद्यालय के दक्षिण एशिया भाषा विभाग के सहकर्मियों, अमेरीकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टेडीज के अनुदान और समृद्ध रिगेंस्टीन पुस्तकालय का इस पुस्तक में भरपूर योगदान रहा है। मैं इन सबका आभारी हूं।

 

शिकागो विश्वविद्यालय
जुलाई, 1991

 

ए,के.रामानुजन

 

भूमिका

 

भारतीय संस्कृति के अध्येता को लिखित शास्त्रों का ही नहीं बल्कि मौलिक परंपराओं का भी अध्ययन करना चाहिए, जिनका कि लोक-साहित्य महत्त्वपूर्ण अंग है। लोक-साहित्य अनपढ़ लोगों और संस्कृति की सांकेतिक भाषा के रूप में बच्चों, परिवार और समुदायों में समाया हुआ।

यहाँ तक कि मुंबई, चेन्नई या कलकत्ता जैसे महानगरों में और पश्चिमी शैली वाले दो-दो सदस्यों के परिवारों में भी लोक-साहित्य (कहावतें, लोरियां लोकदवाएँ लोक-कथाएँ) दुर्लभ नहीं है, क्योंकि वहां भी उपनगर हैं, चचेरे-ममेरे भाई-बहन हैं, दादियां और नानियां हैं। असली लोक-साहित्य चेन्नई के पिछवाड़े का गलियों में फलता-फूलता है। वह मिलता है अपनी भरपूर लोक-छटाओं के साथ मुख्य त्योहारों पर-जैसे कि मुंबई में गणेश-चतुर्थी के अवसर पर। एक बार मेरे एक मित्र, जी कॉलेज में कन्नड़ साहित्य के प्रोफेसर हैं, ने मुझसे कहा, ‘आज के जमाने में तुम महानगरों में

लोक-साहित्य कैसे कर लेते हो ?’ मैंने उनसे कहा कि वह अपने शहरी छात्रों को अपनी याद्दाश्त में कोई लोक-कथा लिखने को कहें जो उन्होंने पढ़ी न हो सुनी न हो। उस दिन शाम को प्रसन्नचित्त मित्र ने मुझे चालीस कथाओं का पुलिंदा सौंपा जो उनके छात्रों ने लिखी थीं।

जहां भी लोग रहते हैं वहां लोक-साहित्य फलता-फूलता है। नए चुटकुले, कहावतें (जैसे कि विश्वविद्यालय की नई कहावत, ‘फोटोप्रति कराना जानना है’), तुकबंदियां किस्से-कहानियां, गीत-सब मौखिक परंपरा के रूप में फैलते हैं। श्रृंखलाबद्ध पत्र और मर्फी के नियम (छींटाकशी और अश्लील या राजनीतिक फिकरे-अनु.) कागज और सार्वजनिक शौचालयों की दीवारों को मार्फत औरों तक पहुँचते है। शाब्दिक लोक-साहित्य (व्यापक मौखिक परंपरा के विशिष्ट रूपों के अर्थ में-जैसे कि कहावतें, पहेलियां, लोरियां, कथाएं, आख्यान, विवरणात्मक गद्य, गीत आदि), शब्दातीत पद्धतियां

इस भूमिका में मैंने अपने पूर्व लेखन की सामग्री का उपयोग किया है, खासकर (1) ‘हू नीड्स फॉकलोर ? द रेलिवेंस ऑफ ऑरल टु साउथ एशियन स्टेडीज’ ‘राम वट्टमुल्ल डिस्टिग्विश्ड लेक्चर’ के तहत भारत का पहला व्याख्यान जिसे सेंटर फॉर एशियन ने प्रायोजित किया और उन्होंने ही मार्च 1988 में साउथ एशिया ऑकेजनल पेपर्स यूनिवर्सिटी ऑफ हवाई, मनोआ के अव्वल नंबर के रूप में प्रकाशित किया। (2) ‘टेलिंग टेल्स’, डेडलस , फॉल, 1989।


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